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परि॑ त्रिवि॒ष्ट्य॑ध्व॒रं यात्य॒ग्नी र॒थीरि॑व। आ दे॒वेषु॒ प्रयो॒ दध॑त् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pari triviṣṭy adhvaraṁ yāty agnī rathīr iva | ā deveṣu prayo dadhat ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

परि॑। त्रि॒ऽवि॒ष्टि। अ॒ध्व॒रम्। याति॑। अ॒ग्निः। र॒थीःऽइ॑व। आ। दे॒वेषु॑। प्रयः॑। दध॑त् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:15» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:5» वर्ग:15» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निविद्याविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जो (अग्निः) अग्नि (रथीरिव) श्रेष्ठ रथ आदि से युक्त सेना के स्वामी के सदृश (देवेषु) प्रकाशमान विद्वानों में (प्रयः) कामना करने योग्य धन को (दधत्) धारण करता हुआ (त्रिविष्टि) तीन प्रकार के सुख के प्रवेश में (अध्वरम्) सत्कार करने योग्य व्यवहार को (परि, आ, याति) सब ओर से प्राप्त होता है, वह आप लोगों से कार्य्यों में युक्त करने योग्य है ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे उत्तम सेना से युक्त सेनाध्यक्ष पुरुष तीन प्रकार के सुख को प्राप्त होता है, वैसे ही अग्निविद्या का जाननेवाला शरीर, आत्मा और इन्द्रियों के आनन्द को प्राप्त होता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निविद्याविषयमाह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! योऽग्नी रथीरिव देवेषु प्रयो दधत् त्रिविष्ट्यध्वरं पर्यायाति स युष्माभिः कार्येषु योजनीयः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (परि) (त्रिविष्टि) विविधे सुखप्रवेशे (अध्वरम्) सत्कर्त्तव्यं व्यवहारम् (याति) (अग्निः) पावकः (रथीरिव) प्रशस्तरथादियुक्तः सेनेश इव (आ) (देवेषु) (प्रयः) कमनीयं धनम् (दधत्) धरन्त्सन् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथोत्तमसेनः सेनाध्यक्षस्त्रिविधं सुखमाप्नोति तथैवाऽग्निविद्याविच्छरीरात्मेन्द्रियाऽऽनन्दं लभते ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे उत्तम सेनायुक्त सेनाध्यक्षाला तीन प्रकारचे सुख प्राप्त होते, तसेच अग्नी विद्या जाणणारा शरीर, आत्मा व इंद्रियांच्या आनंदाला प्राप्त करतो. ॥ २ ॥